सावन विशेष: त्रिशूल, डमरू और नाग, जानें शिव के इन तीनों प्रतीकों की रहस्यमयी कथा

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 सावन विशेष: त्रिशूल, डमरू और नाग, जानें शिव के इन तीनों प्रतीकों की रहस्यमयी कथा  





सावन के महीने में चारों ओर भगवान शिव के नाम की गूंज सुनाई देती है। भक्त उन्हें भोलेनाथ भी कहते हैं, क्योंकि वे अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। उनके दर पर जाकर कोई खाली नहीं लौटता, जो न राजा देखते हैं, न रंक, न बड़ा, न छोटा... बस देखते हैं तो सच्चा भाव। भगवान शिव का यही भोलापन उन्हें सबसे अलग बनाता है। वे जितने सरल हैं, उतने ही रहस्यमय भी। उनके गले में सांप है, सिर पर चंद्रमा, जटाओं में गंगा, एक हाथ में डमरू और दूसरे में त्रिशूल... हर किसी की अपनी एक कहानी है। उनके हर एक प्रतीक के पीछे कोई कथा है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब सृष्टि की शुरुआत हुई, तब भगवान शिव प्रकट हुए। उनके साथ तीन गुण भी पैदा हुए—रज, तम और सत्व। ये तीनों गुण जीवन के लिए जरूरी हैं, लेकिन इनका संतुलन भी जरूरी होता है। रज यानी 'क्रिया,' तम यानी 'अंधकार,' और सत यानी 'ज्ञान।' इनका संतुलन बनाए रखने के लिए भगवान शिव ने इन्हें त्रिशूल के रूप में धारण कर लिया। इसलिए त्रिशूल यह सिखाता है कि जीवन में संतुलन सबसे जरूरी है। 

अब बात करते हैं डमरू की, जो भगवान शिव के दूसरे हाथ में होता है। यह छोटा-सा वाद्य यंत्र है, लेकिन इसका महत्व बहुत बड़ा है। कहा जाता है कि जब सृष्टि की शुरुआत हुई, तब देवी सरस्वती ने अपनी वीणा से ध्वनि तो बनाई, लेकिन उसमें कोई ताल-सुर नहीं था। उस समय भगवान शिव ने तांडव करते हुए 14 बार डमरू बजाया। उस डमरू से निकली ध्वनि से ही सुर, ताल और संगीत की रचना हुई। 

यह भी माना जाता है कि संस्कृत भाषा के व्याकरण के मूल सूत्र भी डमरू की ध्वनि से निकले थे। इसलिए डमरू केवल एक वाद्य नहीं है, बल्कि सृष्टि की पहली भाषा, पहली ध्वनि और पहले ज्ञान का स्रोत है।

प्रेमानंद महाराज ने समझाया अब आखिर में बात करते हैं शिव के गले में लिपटे नाग की। यह कोई सामान्य नाग नहीं, बल्कि नागों के राजा वासुकी है। सागर मंथन की कथा में जब देवता और राक्षसों ने मिलकर समुद्र मंथन किया, तब रस्सी के रूप में वासुकी नाग ने खुद को अर्पित कर दिया। भगवान शिव उनके इस त्याग और भक्ति से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वासुकी को वरदान दिया कि वे हमेशा उनके गले में एक आभूषण की तरह रहेंगे। 

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