लोकतंत्र की धुरी पर सवाल..चुनाव आयोग, ADR और जनविश्वास की चुनौती

0

 लोकतंत्र की धुरी पर सवाल..चुनाव आयोग, ADR और जन विश्वास की चुनौती




भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी चुनाव प्रणाली रही है, जो विगत सात दशकों तक जनादेश की निष्पक्ष अभिव्यक्ति का मंच रही है। किंतु वर्तमान परिदृश्य में, जब चुनाव आयोग जैसे संवैधानिक संस्थान की पारदर्शिता, निष्पक्षता और जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हों, तब यह केवल किसी एक संस्था की छवि का नहीं, अपितु पूरे लोकतंत्र के भविष्य का प्रश्न बन जाता है।


एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म (ADR) के संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर और उनकी संस्था ने भारत में लोकतांत्रिक सुधारों की दिशा में अनुकरणीय कार्य किया है। चाहे वह उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, संपत्ति और शैक्षिक योग्यता की अनिवार्य घोषणा हो, या चुनावी बॉन्ड की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने की ऐतिहासिक याचिका — ADR के प्रयासों ने भारतीय मतदाता को अधिक जागरूक, और सिस्टम को अधिक जवाबदेह बनाने की दिशा में ठोस कार्य किया है।


❖ चुनाव आयोग की भूमिका: एक संवैधानिक उत्तरदायित्व


चुनाव आयोग की भूमिका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 में परिभाषित की गई है, जो उसे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने का सर्वोच्च उत्तरदायित्व देता है। किंतु जब आयोग राहुल गांधी जैसे प्रमुख विपक्षी नेता के आरोपों पर जांच करने के बजाय उनसे हलफनामा मांगता है, तब यह धारणा बनती है कि आयोग अपने दायित्व से मुंह मोड़ रहा है।


प्रो. छोकर द्वारा उठाए गए निम्नलिखित बिंदु अत्यंत गंभीर हैं:


* बिहार में 65 लाख वोटरों की सूची से कटौती: ADR की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को यह डाटा 9 अगस्त तक देने का निर्देश दिया है। यह एक अभूतपूर्व घटना है, जो मतदाता पंजीकरण की पारदर्शिता पर गहन प्रश्नचिह्न लगाती है।


* फेज़ 1 वोटिंग के आँकड़े जारी करने में 11 दिन की देरी: और वह भी सिर्फ प्रतिशत — यह देरी न केवल संदेह को जन्म देती है, बल्कि आयोग की कार्यशैली में पारदर्शिता की कमी को दर्शाती है।


* महाराष्ट्र में 6 घंटे में 75 लाख वोटों की वृद्धि: शाम 5 बजे से रात 11 बजे तक यह कैसे संभव हुआ? यह तकनीकी गड़बड़ी थी या डेटा मैनीपुलेशन?


* विडियो फुटेज की 45 दिन की सीमा: जब पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने ईवीएम से जुड़ी रिकॉर्डिंग की मांग की, तभी संसद में एक कानून पारित कर 45 दिन की सीमा निर्धारित कर दी गई। यह कदम सार्वजनिक जांच से बचाव का प्रयास प्रतीत होता है।


* चुनाव आयुक्त चयन समिति से भारत के मुख्य न्यायाधीश को हटाना: यह एक ऐसा कदम है जो चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सीधा प्रहार करता है। न्यायपालिका की सहभागिता ही चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता की गारंटी होती थी।


          ❖ न्यायिक और संवैधानिक परिप्रेक्ष्य


इन प्रश्नों को केवल राजनीतिक आरोप कहकर नकारना, भारत की संवैधानिक आत्मा के साथ छल होगा। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कई बार टिप्पणी की है कि “चुनाव आयोग को अपने संवैधानिक उत्तरदायित्व को निभाने में निष्पक्षता और पारदर्शिता से कोई समझौता नहीं करना चाहिए।” संविधान का मूल ढांचा (Basic Structure Doctrine) चुनाव प्रक्रिया की शुचिता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करता है। जब चुनाव प्रक्रिया संदिग्ध बनती है, तो यह केवल वर्तमान सत्ता की वैधता पर ही नहीं, संपूर्ण शासन प्रणाली की वैधता पर प्रश्न खड़ा करता है।


           ❖ लोकतंत्र की नैतिक परीक्षा


लोकतंत्र केवल मत डालने का अधिकार नहीं है, बल्कि यह विश्वास का तंत्र है। जब आम मतदाता को यह प्रतीत होने लगे कि उसके मत का मूल्य तयशुदा है या आँकड़ों से खेला जा रहा है, तब लोकतंत्र की आत्मा घायल होती है। प्रो. छोकर के शब्दों में — "अगर चुनाव आयोग इन मुद्दों पर चुप है, तो यह चोरी में मिलीभगत ही कहलाएगी।"


❖ जनता की भूमिका: संयम के साथ प्रतिरोध


आज आवश्यकता है कि जनता एकजुट होकर अपने अधिकारों के लिए लोकतांत्रिक ढंग से संघर्ष करे। सोशल मीडिया, जन आंदोलनों, आरटीआई और न्यायिक याचिकाओं के माध्यम से जवाबदेही तय कराना आज हर नागरिक का कर्तव्य बन चुका है।


लोकतंत्र की रक्षा तलवार से नहीं, सत्य और संविधान के प्रति आस्था से होती है।


"संविधान केवल दस्तावेज नहीं, यह हमारी आत्मा है। उसे नष्ट करने वाली चुप्पी नहीं, जागरूकता और प्रतिरोध चाहिए।"

Post a Comment

0Comments

Please Select Embedded Mode To show the Comment System.*

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !