आदिवासी भूमि संरक्षण कानून की उड़ाई धज्जियां

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आदिवासी भूमि संरक्षण कानून की उड़ाई धज्जियां  

कलेक्टर–आयुक्त के आदेश के बाद भी नहीं रुकी हेराफेरी, राजस्व अमले की भूमिका सवालों के घेरे में



उत्तम साहू 

नगरीआदिवासी विकासखंड पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र नगरी में आदिवासी भूमि संरक्षण कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ाने का सनसनीखेज मामला सामने आया है। एक आदिवासी की कीमती जमीन को षड्यंत्रपूर्वक फर्जी तरीके से गैर-आदिवासी के नाम पर दर्ज कर दिए जाने से न केवल संवैधानिक प्रावधानों पर प्रश्नचिह्न लगा है, बल्कि पूरे राजस्व तंत्र की कार्यप्रणाली कटघरे में खड़ी हो गई है।  

 नौकरी के बहाने चाल, करोड़ों की जमीन पर कब्जे का आरोप  

जानकारी के अनुसार नगरी क्षेत्र के एक गैर-आदिवासी व्यक्ति ने एक आदिवासी युवक को अपने यहां नौकरी पर रखा। विश्वास के इसी रिश्ते का फायदा उठाते हुए पहले आदिवासी की बहुमूल्य कृषि भूमि की रजिस्ट्री उसी आदिवासी कर्मचारी के नाम करवाई गई, जबकि वास्तविक कब्जा और नियंत्रण गैर-आदिवासी के पास ही रहा। बाद में सुनियोजित तरीके से उसी भूमि को अपने नाम कराने राजस्व अभिलेख में नामांतरण के लिए आवेदन प्रस्तुत किया गया।  

 कलेक्टर ने सुधारी गलती, आयुक्त ने भी लगाई मोहर  

धमतरी कलेक्टर ने 5 जुलाई 2005 को नामांतरण की अनुमति दे दी, लेकिन बाद में प्रकरण की गंभीरता और कानूनी स्थिति को देखते हुए स्वयं अपने आदेश को स्वतः संज्ञान में लेकर दिनांक 15 जुलाई 2005 को निरस्त कर दिया। कलेक्टर के इस आदेश के खिलाफ गैर-आदिवासी ने आयुक्त के समक्ष अपील दायर की, जिस पर सुनवाई के बाद आयुक्त ने कलेक्टर के निरस्तीकरण आदेश को सही ठहराया और अपील खारिज कर दी। इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रशासनिक स्तर पर उच्च अधिकारी भी इस नामांतरण को अवैध मान चुके हैं।  

 आदेश के विपरीत रिकॉर्ड में आज भी गैर-आदिवासी का नाम  

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि कलेक्टर और आयुक्त – दोनों स्तर पर आदेश पारित होने के बावजूद ज़मीन की रजिस्ट्री रद्द नहीं की गई। यहां तक कि वर्ष 2011 में राजस्व रिकॉर्ड को फिर से इस तरह से बदला गया कि संबंधित भूमि पर गैर-आदिवासी का नाम दर्ज हो गया। यह तथ्य पूरे प्रकरण को संदिग्ध बनाता है और सीधे-सीधे राजस्व विभाग के अंदरूनी मिलीभगत और भ्रष्टाचार की आशंका को बल देता है। रिकॉर्ड में संशोधन किस आदेश के आधार पर और किस अधिकारी–कर्मचारी के हस्ताक्षर से किया गया, यह बड़ा सवाल है, जिसका जवाब अब तक राजस्व विभाग के पास नहीं दिख रहा।  

राजस्व अमला कठघरे में, नियमों की अनदेखी के गंभीर सवाल  

आदिवासी क्षेत्र की भूमि किसी भी हालत में गैर-आदिवासी के नाम स्थानांतरित न हो, इसके लिए पांचवीं अनुसूचित क्षेत्र, राज्य के आदिवासी भूमि संरक्षण नियमों और भू-राजस्व संहिता में स्पष्ट प्रावधान हैं। इसके बावजूद नामांतरण की मूल अनुमति देना, बाद में उसे निरस्त होने के बावजूद रिकॉर्ड में संशोधन करना, और आज तक जमीन को पूर्व स्थिति में बहाल न करना,  


इन सबमें तहसील से लेकर जिला स्तर तक पूरे राजस्व तंत्र की भूमिका संदिग्ध लगती है। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि राजस्व विभाग अपने ही अभिलेखों और उच्च अधिकारियों के आदेशों की अनदेखी करेगा, तो आदिवासी भूमि संरक्षण कानून कागजों तक सीमित रह जाएंगे।


स्थानीय सर्व आदिवासी समाज एवं सामाजिक संगठनों ने इस प्रकरण को आदिवासी अधिकारों पर सीधा हमला बताया है। अन्य जिलों से भी इस तरह के फर्जीवाड़े के मामले सामने आते रहे हैं, जिनमें गैर-आदिवासी गिरोहबंदी कर आदिवासियों की भूमि पर कब्जे के आरोप लगते रहे हैं संगठनों ने आरोप लगाया कि यदि राजस्व अधिकारी ईमानदारी से कानून लागू करते, तो इस तरह की रजिस्ट्री और नामांतरण संभव ही नहीं होता।  

 पूरे मामले की उच्च स्तरीय न्यायिक या एसआईटी स्तर की जांच की जाए।

 2011 में रिकॉर्ड पूर्ववत करने और पुन: गैर-आदिवासी का नाम दर्ज करने की पूरी श्रृंखला की जांच कर जिम्मेदार अधिकारियों-कर्मचारियों को चिन्हित किया जाए।  

संबंधित रजिस्ट्री को तत्काल प्रभाव से निरस्त कर, भूमि को मूल आदिवासी मालिक के नाम बहाल किया जाए।  

भविष्य में ऐसे फर्जीवाड़े रोकने के लिए राजस्व विभाग के स्तर पर ऑनलाइन पारदर्शी मॉनिटरिंग और विशेष ऑडिट की व्यवस्था की जाए।  


स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यदि ऐसे मामलों में कठोर उदाहरणात्मक कार्रवाई नहीं हुई, तो पाँचवीं अनुसूचित क्षेत्र के आदिवासी भूमि संरक्षण कानून मात्र औपचारिकता बनकर रह जाएंगे और प्रभावशाली लोगों द्वारा गरीब आदिवासियों की जमीन हड़पने का सिलसिला जारी रहेगा।  






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