15 अगस्त पर एक सवाल खुद से ज़रूर पूछिए..क्या हम वाकई में आज़ाद हैं.? या गुलामी का नया चेहरा देख रहे हैं..
उत्तम साहू संपादक दबंग छत्तीसगढ़ीया न्यूज
15 अगस्त 2025 देश जब 79 वीं स्वतंत्रता दिवस की तैयारी में रंगा है, वहीँ करोड़ों लोगों के मन में ये सवाल बार-बार उठ रहा है “क्या हम सच में आज़ाद हैं..?” क्या अंग्रेजों की जंजीरों से निकले भारतवासियों ने भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, जातिवाद, और डर के नए बेड़ियों को पहन लिया है..? आज आपके सामने वो सच्चाई ला रहे है, जो नेताओं के भाषणों में कभी नहीं आती।
संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आधारशिला है। परंतु हाल के वर्षों में कई मामलों में यह स्वतंत्रता सवालों के घेरे में रही है। पत्रकारों पर हमले, सामाजिक मीडिया पर निगरानी, और असहमति जताने वाले लोगों पर कार्रवाई जैसे घटनाक्रम चिंता का विषय बनते जा रहे हैं।अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सीमाएं,महिलाओं की सुरक्षा और समानता,शिक्षा और स्वास्थ्य में विषमता।
महिलाओं की सुरक्षा और समानता
महिलाओं को आज़ादी तो मिली, लेकिन क्या वे सुरक्षित महसूस करती हैं? कार्यस्थलों, सड़कों और घरों में उनके साथ होने वाली हिंसा, छेड़छाड़ और भेदभाव इस बात का संकेत है कि आज़ादी अभी भी अधूरी है। महिला सशक्तिकरण की बातें ज़रूर हो रही हैं, लेकिन उनका वास्तविक प्रभाव हर क्षेत्र में अभी तक स्पष्ट नहीं है।
शिक्षा और स्वास्थ्य में विषमता
स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हर नागरिक को समान अवसर प्राप्त हों.. चाहे वह शिक्षा हो या स्वास्थ्य सेवा। हालांकि सरकारी योजनाएं और प्रयास मौजूद हैं, परंतु जमीनी हकीकत यह है कि निजी संस्थानों और सरकारी सेवाओं के बीच भारी अंतर है। ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब वर्गों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा आज भी एक चुनौती बनी हुई है। ग्रामीण अस्पतालों में इलाज के लिए लोग दम तोड़ रहे हैं।
आर्थिक स्वतंत्रता – कुछ के लिए अवसर, बाकियों के लिए संघर्ष
आर्थिक मोर्चे पर, भारत ने ज़रूर तेज़ विकास दर्ज किया है। लेकिन यह विकास समान रूप से नहीं फैला है। करोड़ों लोग अब भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। महंगाई, बेरोज़गारी और संसाधनों तक असमान पहुंच ने आर्थिक स्वतंत्रता को केवल कुछ वर्गों तक सीमित कर दिया है।
कृषि क्षेत्र में काम कर रहे लाखों किसानों की स्थिति, असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की दशा, और छोटे व्यापारियों के सामने खड़े आर्थिक संकट इस अधूरी आज़ादी की वास्तविकता को दर्शाते हैं। आज़ादी का सपना देखा था जिसमें हर हाथ में रोजगार, हर परिवार के पास सम्मान। लेकिन 78 सालों में भी गांव के किसान, शहर का मजदूर, और पढ़े-लिखे युवा अपने हक के लिए दर-दर भटक रहे हैं। आलम यह है कि सरकारी योजनाओं की फाइलें अफसरों की मेज पर धूल फांकती हैं। युवा रोजगार मेले की भीड़ में लाइन लगाकर हार जाते हैं।
‘सत्ता बदलती है, सिस्टम नहीं
“बेटा, अंग्रेज चले गए लेकिन अफसरों की गुलामी आज भी कायम है। आज़ादी तो मिली पर गरीब के लिए नहीं, सिर्फ अमीरों के लिए।” क्या 15 अगस्त सिर्फ औपचारिकता बन कर रह गया है..? हर साल तिरंगा फहरता है, हर जगह देशभक्ति के नारे लगते हैं, लेकिन क्या इन नारों के पीछे की हकीकत किसी ने देखी है?
किसानों की आत्महत्या के आंकड़े हर साल बढ़ रहे हैं। महिलाओं की सुरक्षा पर सवाल उठ रहे हैं। भ्रष्टाचार की दीमक सरकारी व्यवस्था को खोखला कर रही है। शिक्षा है लेकिन योग्यताओं का मूल्यांकन नहीं। अब देश को ‘सच्ची आज़ादी’ की जरूरत है — जहाँ आम आदमी की आवाज़ सत्ता तक पहुँचे!
जब तक देश का हर नागरिक अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं होगा, जब तक नेताओं से सवाल नहीं पूछे जाएंगे, तब तक आज़ादी अधूरी रहेगी। 15 अगस्त पर जश्न के साथ-साथ हमें ये संकल्प भी लेना होगा कि हम अपने हक के लिए लड़ेंगे, आवाज उठाएंगे, और ‘सिस्टम की गुलामी’ से भी खुद को आज़ाद कराएंगे।
प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल
प्रेस की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण पहिया है। स्वतंत्र प्रेस के बिना लोकतंत्र अस्तित्व में नहीं रह सकता। वास्तव में, प्रेस एक ऐसा माध्यम है जो लोगों तक सच्चाई को पहुँचाता है। हालाँकि, अगर प्रेस स्वतंत्र नहीं है तो यह पूरी तरह से काम नहीं कर सकता। लेकिन देखा जा रहा है प्रेस की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी पर कड़ा प्रहार कर सच को दबाने प्रेस को मजबूर किया जा रहा है।
सूचना तक पहुँच के लिए सार्वजनिक हित से जुड़े मामलों की जाँच करने और रिपोर्ट करने के लिये एक स्वतंत्र प्रेस की सूचना एवं स्रोतों तक पहुँच होनी चाहिये। आजादी का यह महापर्व है या सिस्टम की विफलता का आईना..? यह सवाल आज भी करोड़ों भारतीयों के मन में है।

